Sunday, March 25, 2007

ये महलों, ये तख़्त-ओ, ये ताजों की दुनिया
ये इंसान के दुश्मन, समाजों की दुनिया
ये दौलत के भूके, रवाज़ों की दुनिया
ये दुनिया अगर मिल भी जाए, तो क्या है ?
हर एक जिस्म घायल, हर एक रूह प्यासी
निगाहों में उलझन दिलों में उदासी
ये दुनिया है या आलम-ए-बदहवासी
ये दुनिया अगर मिल भी जाए, तो क्या है ?
यहाँ एक खिलोना है इंसान की हस्ती
ये बस्ती है मुर्दा परस्तों की बस्ती
यहाँ ज़िंदगी से भी है मौत सस्ती
ये दुनिया अगर मिल भी जाए, तो क्या है ?
जवानी भटकती है बदकार बनकर
जवान जिस्म सजते हैं बाज़ार बनकर
यहाँ प्यार होता है व्योपार बनकर
ये दुनिया अगर मिल भी जाए, तो क्या है ?
ये दुनिया, जहाँ आदमी कुछ नहीं है
वफ़ा कुछ नहीं दोस्ती कुछ नहीं है
जहाँ प्यार की क़द्र ही कुछ नहीं है
ये दुनिया अगर मिल भी जाए, तो क्या है ?
जला दो इसे, फूक़ डालो ये दुनिया
जला दो, जला दो, जला दो
फूक़ डालो ये दुनिया
मेरे सामने से हटा लो ये दुनिया
तुम्हारी है तुम ही संभालो ये दुनिया
ये दुनिया अगर मिल भी जाए, तो क्या है ?

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